जब हनुमान जी लंकेश रावण की लंका को जला रहे थे तब एक बहुत ही विस्मयकारी घटना हुई लंका में आग लगती और लंका को बिना हानि पहुंचाए अदृश्य हो जाती थी l तब महावीर हनुमान जी चिंतित हो उठे की क्या रावण द्वारा अर्जित पुण्य इतने प्रबल है अथवा मेरी भक्ति में ही किसी प्रकार की कमी है !
जब श्री हनुमान जी ने अपने आराध्य प्रभु श्रीराम का सुमिरन किया तब भगवान श्री राम की कृपा से ज्ञात हुआ की "हे हनुमान जिस लंका को तुम जला रहे हो वह माया रचित है, प्रतिबिम्ब है l असली लंका तो माँ पार्वती के हाथों शनिदेव की दृष्टि से पूर्व में ही ध्वस्त हो चुकी है l शनि देव लंका के तल में है इसीलिए ये प्रतिबिम्ब (लंका) नष्ट नहीं हो रही"! तब हनुमान जी महाराज ने जाकर शनिदेव को रावण की कैद से मुक्त कराते है l शनि देव के बाहर आते ही ज्यो ही उनकी दृष्टि उस बिम्ब लंका पर पड़ी वह धू-धू कर जलने लगी क्योंकि माँ पार्वती के मन में लंका को स्वयं ध्वस्त करने का दुःख थाl उसी के फलस्वरूप माँ पार्वती ने अपने मन का बिम्ब रावण को दिया था
उसी प्रकार मनुष्य जब अपने सत्कर्म भूल कर दुष्कर्म में प्रवृत्त हो माया रुपी सुखों की रचना कर उन्ही में डूब जाता है, सुमिरन भूल जाता है तब शनि देव उसे अपना अस्तित्व और कर्म याद करवाते है इसी लिए उन्हें न्यायाधीश कहा जाता है।
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