खुदीराम बोस : स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते हुए फाँसी के फंदे को चूमनेवाले प्रथम स्वतंत्रता सेनानी


 

6 साल की उम्र में उन्होंने अपने माता-पिता को खो दिया था। 15 साल की उम्र में उन्होंने बम बनाना सीख लिया था। 19 साल की उम्र में, 11 अगस्त 1908 को उन्हें फाँसी दे दी गई थी।

हम बात कर रहे हैं - श्री खुदीराम बोस की ।

वे स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते हुए फाँसी के फंदे को चूमनेवाले प्रथम स्वतंत्रता सेनानी थे। लेकिन आख़िर हुआ क्या था ?

3 दिसंबर, 1889 को खुदीराम बोस का जन्म हुआ था। छोटी उम्र में ही अपने माँ-बाप खोने के बाद, उनकी बड़ी बहन ने ही उनकी देखभाल की।

स्कूल के शुरुआती दिनों में उनका पढ़ाई में मन नहीं लगता था, लेकिन जैसे-जैसे वे बड़े हुए उनकी किताबों में रुचि बढ़ने लगी। पढ़ाई के साथ उन्हें जिमनास्टिक्स का भी शौक था।

उन्होंने थोड़े ही समय में बहुत सारा साहित्य पढ़ लिया था। विशेषकर बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की लगभग सभी रचनाएँ उन्होंने पढ़ ली थीं, जिनमें 'आनंदमठ' ने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया था।

कभी-कभी उनका मन विरक्त हो उठता था और वे सोचने लगते कि उनका जन्म किस उद्देश्य के लिए हुआ है। अब खुदीराम को एकांत प्रिय लगने लगा था। वे बहुत देर तक एकांत में बैठे रहते और देश की राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति के बारे में सोचते रहते।

वे इस तथ्य से भली-भाँति परिचित हो चुके थे कि अंग्रेज उनके देशवासियों पर तरह-तरह के अत्याचार कर रहे हैं। वे अंग्रेजों से बदला लेने के लिए आतुर हो उठते थे।

1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होंने सरकार के ख़िलाफ़ होने वाले प्रदर्शनों में भाग लिया। इसी दौरान उन्होंने श्री औरोबिंदो घोष के भाषण सुनें, और उनसे प्रभावित होकर 'अनुशीलन समिति' का हिस्सा बन गए। ऊपर-ऊपर से यह एक प्रकार का फिटनेस क्लब था, लेकिन यहीं पर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की रणनीति बनती थी। यहीं पर खुदीराम ने बम बनाना भी सीखा।

1908 में वो निर्णायक क्षण आया जब खुदीराम और उनके दोस्त प्रफुल चाकी को मुज़फ़्फ़रपुर के मजिस्ट्रेट 'किंग्सफोर्ड' पर बम फेंकने का काम मिला। किंग्सफोर्ड ने बंगाल में उठ रही क्रांति की आवाज़ को कुचलने की भरसक कोशिश की थी। जहाँ कहीं भी कोई क्रांतिकारी पकड़े जाते वो उन्हें कठोर से कठोर सज़ा देता, जिससे कोई भी नौजवान क्रांति में हिस्सा लेने से पहले 10 बार सोचे।

किंग्सफोर्ड को मारने के कई प्रयास किए जा चुके थे। पहले कोर्ट में ही उसपर बम फेंकने का प्लान बना, लेकिन वहाँ आम लोगों को नुक़सान पहुँचने के डर से, उसकी गाड़ी पर बम फेंकने का निर्णय लिया गया।

30 अप्रैल 1908 को जब बम फेंका गया तो पता चला कि किंग्सफोर्ड फिर बच गया, और बम फटने से उसकी जगह गाड़ी में दो अन्य महिलाओं की मृत्यु हो गई ।

किंग्सफोर्ड फिर बच गया, और बम फटने से उसकी जगह गाड़ी में दो अन्य महिलाओं की मृत्यु हो गई ।
पुलिस खुदीराम और उनके दोस्त को ढूँढ़ने में जुट गई। परिस्थिति को बिगड़ता देख पुलिस के द्वारा पकड़े जाने से पहले प्रफुल ने स्वयं को गोली मार ली। और खुदीराम पकड़े गए।

जैसे ही खुदीराम को हथकड़ी लगाकर मुजफ्फरपुर के पुलिस स्टेशन में लाया गया, पूरा शहर उन्हें देखने के लिए उमड़ पड़ा। अगली सुबह के स्टेट्समैन ने रिपोर्ट करते हुए लिखा, "लड़के को देखने के लिए रेलवे स्टेशन पर भीड़ थी। महज 18 या 19 साल का एक लड़का, जो काफी दृढ़ निश्चयी लग रहा था। एक हँसमुख लड़के की तरह जो कोई चिंता नहीं जानता... अपनी सीट लेने पर लड़के ने खुशी से 'वंदेमातरम' कहा । "

खुदीराम ने इस घटना की पूरी जिम्मेदारी ली।

📍📍13 जुलाई 1908 को खुदीराम को मौत की सज़ा सुनाई गई। जब अंग्रेज जज ने उनसे पूछा कि क्या वे उसकी बात समझ भी पाए, तो खुदीराम मुस्कुराए और शांति से बोले, "हाँ, मैं समझता हूँ और मेरे वकील ने कहा कि मैं बम बनाने के लिए बहुत छोटा हूँ । यदि आप मुझे यहाँ से ले जाने से पहले कुछ समय दें तो “” मैं आपको बम बनाने भी सिखा सकता हूँ।"📍📍

इसके तुरंत बाद, कलकत्ता की सड़कें कई दिनों तक छात्र समुदाय के बड़े विरोध प्रदर्शनों से भर गईं।

11 अगस्त, 1908 को उन्हें फाँसी दे दी गई।

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