श्री कृष्ण और सुदामा | Krishna and Sudama Stories

श्री कृष्ण और सुदामा आश्रम में शिक्षा ग्रहण करते थे और युवा अवस्था में थे। एक दिन आश्रम में लकड़ियां समाप्त हो गयी और गुरुमाता परेशान होने लगी। गुरुमाता ने श्रीकृष्ण और सुदामा के साथ उनके अन्य साथियों को अपने पास बुलाया और आज्ञा दी कि बच्चो आश्रम में लकड़ियां समाप्त हो गयी है आप लोग जगल जाओ और लकड़ियां लाओ। गुरु माता ने उन्हें एक पोटली देकर कहा अगर भूख लगे तो इसमें से चने निकल कर बराबर बाँट कर खा लेना।

श्रीकृष्ण और सुदामा पोटली लेकर आज्ञा मान कर लकड़ियां लेने के लिए जंगल में चले गए। सभी जंगल में पहुँच कर लकड़ियां इकठ्ठी करने लगे। लगभग सभी ने लकड़ियां इकठ्ठी कर ली थी। लेकिन श्याम हो गयी थी साथ में ही मौसम बहुत ज्यादा खराब होने लगा था। मौसम इतना खराब हो गया की बारिश होने लगी और तूफान भी बड़ी जोर से आने लगा। तूफान और बारिश रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी।

तो श्रीकृष्ण और सुदामा ने सोचा कि हम एक पेड़ पर चढ़ जाते हैं जिससे हम बारिश में भीगने से बच जायेंगे। दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ दोनों पेड़ पर तो चढ़ गए लेकिन वह भीगने से नहीं बचे। बारिश भी अधिक तेज होने लगी थी। बहुत ज्यादा रात हो गयी लेकिन बारिश नहीं रुकी। दोनों ठण्ड के मारे कांप रहे थे। तभी सुदामा को याद आया कि गुरु माता ने हमे चने की पोटली दी थी। सुदामा ने मन ही मन सोचा कि श्रीकृष्ण को याद नहीं है कि गुरुमाता ने हमे चनो की पोटली दी थी।

सुदामा चने चुपके चुपके खा रहा था श्रीकृष्ण को चनो के चबाने के आवाज आ रही थी। तभी कृष्ण जी बोल पड़े। अरे सुदामा गुरुमाता ने हमे जो चने की पोटली दी है उसमे से मेरा हिस्सा लाओ। सुदामा हैरान हो गये और कृष्ण से कहने लगे। अरे मित्र मुझे लगता है वो चने कहीं गिर गए। श्री कृष्ण यह सुनते ही चुप हो गए वह जानते थे कि सुदामा चने खा रहा है लेकिन उन्होंने सुदामा को कुछ नहीं कहा।

सच्ची मित्रता विश्वास, निःस्वार्थता और समझदारी पर आधारित होती है। श्री कृष्ण ने सुदामा की स्थिति को गहराई से समझा और अपने मित्र की जरूरत को बिना खुलेआम बताए उसे सहायता प्रदान की। सच्चे मित्र एक-दूसरे के अनुकंपित इच्छाओं को बिना कुछ मांगे भी महसूस कर सकते हैं और बिना किसी प्रतिपक्षता के सहायता देते हैं। यह कहानी हमें निःस्वार्थ मित्रता की महत्ता सिखाती है और हमें यह बताती है कि हमारे प्रियजनों के संकट के समय मदद और समर्पण का महत्त्व अपनाना चाहिए, चाहे वे हमसे सहायता की विनती करें या न करें।




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